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दूसरा सूक्त
ॠ. 5. 63
वृष्टिदाता
[ मित्र और वरुण अपनी संयुक्त सार्वभौमिकता और सामंजस्यसे दिव्य सत्य तथा उसके दिव्य विधानके संरक्षक हैं, जो सत्य और विधान हमारी परमसत्ताके व्योममें अनादि कालसे पूर्णावस्थामें विद्यमान हैं । वहाँसे वे कृपापात्र आत्मापर द्युलोकोंके प्रचुर ऐश्वर्य एवं इसके परमानन्दकी वर्षा करते हैं । क्योंकि वे स्वभावत: ही मनुष्यमें सत्यके उस लोकके द्रष्टा हैं, और सत्यलोकके विधानके संरक्षक होनेसे वे इस समस्त व्यक्त सृष्टिके शासक हैं, अतः वे आध्यात्मिक संपदा एवं अमरताकी वर्षा करते हैं । प्राण-शक्तियां पृथ्वी और आकाशमें सत्यान्वेषी विचारकी वाणीके साथ चारों तरफ फैल जाती है और वे दोनों सम्राट् उनकी पुकारपर सर्जक जलोंसे भरपूर देदीप्यमान मेघोंके साथ आ पद्रुँचते हैं । मायाके द्वारा ही, जो प्रभुकी दिव्य सत्य-प्रज्ञा है, वे इस प्रकार द्युलोककी वृष्टि करते हैं । वह दिव्य प्रज्ञा है सूर्य, प्रकाश, मित्र तथा वरुणका शस्त्र जो अज्ञानका विध्वंस करनेके लिए चारों तरफ विचरता है । प्रांरभमें सूर्य, जो सत्यका साकार रूप है, अपनी वृष्टियोंके झंझावेगमें छिपा होता है और तब जिस चीजका अनुभव होता है वह है केवल हमारे जीवनमें उनकी धाराओंके प्रवेशका माधुर्य । परन्तु मरुत् प्राणशक्तियों और विचारशक्तियोंके रूपमें हमारी सत्ताके समस्त लोकोंमे गुप्त ज्ञानकी उन भास्वर किरणोंकी खोज करते हुए जिन्हें प्रदीप्त संपदाओंके रूपमें एकत्र किया जाना है, चारों ओर विचरते रहते हैं । दिव्य वर्षाका नाद प्रकाशकी प्रभाओं एवं दिव्य जलधाराओंकी गतिसे परिपूर्ण है । उसके मेघ मरुतों--प्राणशक्तियोंके लिए परिधान बन जाते हैं । इस सबके बीचमें सें दोनों राजा सत्यके शक्तिशाली प्रभुके निर्माणकारक ज्ञानसे तथा सत्यके विधानसे हमारे अन्दर दिव्य क्रियाओंको जारी रखते हैं, सत्यके द्वारा हमारी संपूर्ण सत्तापर शासन करते हैं और अन्तमें इसके आकाशमें सूर्यदेवको, जो अब प्रकट हो जाता है, एक ऐसे रथके रूपमें प्रतिष्ठित करते हैं, जो ज्ञानकी समृद्धतया विविध प्रभाओसे संपन्न है और आत्माकी सर्वोच्च द्युलोकोंकी ओर यात्राका रथ है । ] १८५
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ऋतस्य गोपाबधि तिष्ठथो रथ सत्यधर्माणा परमे व्योमनि । यमत्र मित्रावरुणावथो युवं तस्मै वृष्टिर्मधुमत्पिन्वते दिव: ।।
(ऋतस्य गोपौ) सत्यके संरक्षक तुम दोनों (रथम् अधितिष्ठथ:) अपने रथ पर आरोहण करते हो । (परमे व्योमनि सत्यधर्माणा) परम आकाश1 में सत्यका विधान तुम्हारा ही है । (मित्रावरुणा) हे विशालता और सामं-जस्यके स्वामियों ! (युवं) तुम दोनों (अत्र) यहाँ (यम् अवथ) जिसका पालन-पोषण करते हो (तस्मै) उसके लिए (दिव: वृष्टि:) द्युलोककी वृष्टि (मधुमत् पिन्वते) मधुसे परिपूर्ण होकर वर्धित हो जाती है । २ सभ्राजावस्य भुवनस्य राजथो मित्रावरुणा विदथे स्वर्दृशा । वृष्टिं वां राधो अमृतत्वमीमहे द्यावापृथिवी विचरन्ति तन्यव: ।।
(मित्रावरुणा) हे मित्र और वरुण ! (सम्राजौ) हे सम्राट्2-युगल (अस्य भुवनस्य राजथ:) हमारी संभूतिके इस लोकके ऊपर तुम दोनों शासन करते हों । (विदथे स्वर्दृशा) ज्ञानकी प्राप्तिमें तुम प्रकाशके राज्यके द्रष्टा हो । (वां) तुम दोनोंसे हम (वृष्टिं राधः अमृतत्वम् ईमहे) वर्षा, आनंद-मय समृद्धि तथा अमरताकी कामना करते हैं । वह देखो ! (तन्यव:) गर्जनेवाले मरुत्3-देव (द्यावापृथिवी विचरन्ति) द्यावापृथिवीमे चारों ओर विचरण करते हैं । ३ सम्राजा उग्रा वृषभा दिवस्पती पृथिव्या मित्रावरुणा विचर्षणी । चित्रेभिरभ्रैरुप तिष्ठथो रवं द्यां वर्षयथो असुरस्य मायया ।।
(सम्राजौ) हे सम्राट्-युगल ! (उग्रा वृषभा) प्रचुर ऐश्वर्यके शक्ति-शाली वर्षक वृषभों ! (दिव: पृथिव्या: पती) हे द्युलोक और पृथ्वीलोकके स्वामियों, (मित्रावरुणा) मित्र और वरुण ! (विचर्षणी) अपनी क्रियाओंमें सार्वभौम तुम दोनों (रवम्) उनकी पुकारपर (चित्रेभि: अभ्रै: उप तिष्ठथ:) _____________ 1 अतिचेतन सत्ताकी अनन्तता । 2. सम्राट्--आत्मगत और बहिर्गत सत्ताके ऊपर आधिपत्य रखनेवाले । 3 मरुत्--प्राणशक्तियां और विचारशक्तियां जो हमारी समस्त क्रियाओंके लिए सत्यको खोज निकालती हैं । इस शब्दका अर्थ ''आकार देनेवाला'' या 'निर्माता' भी हो सकता है । १८६ अपने विविध प्रकाशके मेघोंके साथ आ पहुंचते हो और (असुरस्य1 मायया2) शक्तिशाली देवके ज्ञानकी शक्तिसे (द्यां वर्षयथ:) द्युलोककी वर्षा करते हो । ४ माया वां मित्रावरुणा दिवि श्रिता सूर्यो ज्योतिश्चरति चित्रमायुधम् । तमर्भ्रण वृष्ट्चा गूहथो दिवि पर्जन्य द्रप्सा मधुमन्त ईरते ।।
(मित्रावरुणा) हे मित्र और वरुण ! (वां माया दिवि श्रिता) यह है तुम्हारा ज्ञान जो द्युलोकमें प्रतिष्ठित है, (सूर्य:) यही है सूर्य, (ज्योति:) यही है ज्योति । (चित्रम् आयुधं चरति) यह तुम्हारे समृद्ध व विविध शस्त्र के रूपमें सर्वत्र विचरण करता है । तुम (दिवि) आकाशमें (तम्) इसे (अभ्रेण वृष्ट्या गूहथ:) मेघ और वर्षाके द्वारा छिपाये हुए हो । (पर्जन्य) हे द्युलोककी वर्षा करनेवाले देव ! (मधुमन्त: द्रप्सा:) मधुसे भरपूर तेरी धाराएं (ईरते) प्रवाहित हो उठती हैं । ५ रथं युञ्जते मरुता शुभे सुखं शरो न मित्रावरुणा गविष्टिषु । रजांसि चित्रा विचरन्ति तन्यवो दिव: सम्राजा प्रयसा म उक्षतम् ।।
(मित्रावरुणा) हे मित्र और वरुण ! (मरुत:) प्राणशक्तियाँ (गवि-ष्टिपु) प्रकाशके यूथोंकी अपनी खोजोंमें (सुखं रथम्) अपने सुखमय रथको (शुभे) आनन्दकी प्राप्तिके लिए (युञ्जते) जोतती हैं, (शूर: न [ रथम् ] ) जैसे कोई शूरवीर युद्धके लिए रथ जोतता हो । (तन्यव:) गर्जना करती वे (चित्रा रजासि विचरन्ति) चित्र-विचित्र लोकोंमें परिभ्रमण करती हैं । (सम्राजा) हे राजकीय शासकों ! (नः दिव पयसा उक्षतम्) हम- द्युलोकके जलकी वृष्टि करो । ६ वाचं सु मित्रावरुणाविरावतीं पर्जन्यश्चित्रां वदंति त्विषीमतीम् । अभ्रा वसत मरुत: सु मायया द्यां वर्षयतमरुणामरेपसम् ।। _____________ 1. असुर--वेदमे यह शब्द देवके लिए प्रयुक्त हुआ है जैसे कि जिंदावस्तामें देव अहुरमज्दके लिए । पर साथ ही इसका प्रयोग उस देवकी अभिव्यक्त शक्तियों--देवताओंके लिए भी किया गया है । केवल थोड़े ही सूक्तोंमें यह अंधकारमय दैत्योंके लिए प्रयुक्त हुआ है और वहां इसकी एक और ही काल्पनिक व्युत्पत्ति है-अ-सुर, प्रकाशरहित, अ-देव । 2. माया--देवका सर्जनशील ज्ञान-संकल्प, चित्-तपस् । १८७ (मित्रावरुणौ) हे मित्र तथा वरुण ! (पर्जन्य:) द्युलोककी वृष्टिका देवता (वाचं1 वदति) अपनी ऐसी भाषा बोलता है जो (सु चित्रां त्विषीमतीम् इरावतीम्) समृद्ध और विविध ज्योति और गतिशक्तिसे पूर्ण है । (मरुत:) प्राणशक्तियोंने (अभ्रा) तुम्हारे मेघोंको (वसत) वेषभूषाके रूपमें पहन लिया है । (सु मायया) पूर्णतया अपने ज्ञानसे ही तुम (द्यां वर्षयतम्) ऐसे द्युलोककी वर्षा करते हो जो (अरुणाम्) उज्ज्वल रक्तवर्णवाला और (अरे-पसम्) पापसे रहित है । ७ धर्मणा मित्रावरुणा विपश्चिता व्रता रक्षेथे असुरस्य मायया । ऋतेन विश्वं भुवनं वि राजथ: सूर्यमा धत्थो दिवि चित्रयं रथम् ।।
(मित्रावरुणा) हे मित्र और वरुण ! तुम (विपश्चिता) चेतनामें प्रदीप्त हो । (धर्मणा) दैवके विधानसे और (असुरस्य मायया) शक्तिशाली देवके ज्ञानसे तुम (व्रता2 रक्षेथे) क्रियाविधानोंकी रक्षा करते हों । (ऋतेन) सत्यके द्वारा (विश्वं भुवनं वि राजथ:) हमारी संभूतिके समस्त लोकपर विशालतासे शासन करते हो । तुम (दिवि) द्युलोकमें (सूर्यम्) सूर्यको और (चित्र्यं रथं) विविध प्रभासे संपन्न रथको (आ धत्थ:) स्थापित करते हों । ____________ 1. यहां हम तूफानके प्रतीकमें 'तन्यवः' शब्दका आंतरिक अर्थ पाते हैं । यह सत्यके शब्दका बहिर्गर्जन है जैसे कि बिजली इसके भावका बाह्य- स्फुरण । 2. व्रतानि--आर्योचित या दिव्य कियाएँ 'व्रतानि' कहलाती हैं,--सत्यके उस दिव्य विधानकी क्रियाओंको 'व्रतानि' कहते हैं जिसे मनुष्यमें प्रकट किया जाना है । दस्यु या अनार्य, चाहे वह मानव हो या अतिमानव, वह है जो इन दिव्यतर क्रियाओंसे रहित है, अपनी अंधकारयुक्त चेतना- में इनका विरोध करता है और इस संसारमें इनका विध्वंस करनेकी चेष्टा करता है । इसलिए अंधकारके स्वामी दस्यु अर्थात् विनाशक कहलाते हैं । १८८
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